अतीत की वीथियों से आता हुआ शताब्दियों का स्वर हमारे कानों में गूँज रहा है। यह स्वर हिमालय के ऋषियों और नववासी तपस्वियों का है! यह वही स्वर है, जिसे सेमेटिक जातियों ने सुना था। यह वही स्वर है, जो बुद्ध तथा अन्य आध्यात्मिक दिग्गजों की वाणी हुआ था! यह स्वर उन महापुरुषों से आ रहा है, जो उस शाश्वत प्रकाश में निवास करते हैं जो पृथ्वी के प्रारंभ से ही मनुष्य के साथ रहा है और वह कहीं भी जाता है या रहता है यह सदा प्रकाशित रहता है। आज भी हमारे पास वही स्वर पहुँच रहा है। यह स्वर पर्वत से प्रवाहित उन लघु धाराओं की तरह है, जो कभी तो विलुप्त हो जातीं और कभी प्रबल वेग से बहती हुई एक होकर महान जलप्लावन उपस्थित कर देती है। सभी देशों तथा सभी संप्रदायों के पैग़ंबरों एवं पवित्र स्त्री-पुरुषों के उपदेश समवेत स्वर में अतीत के गर्भ से डंके की चोट हमसे कह रहे हैं, ''तुम्हें तथा समस्त धर्मों को शांति मिले।'' यह संदेश विरोध का नहीं- प्रत्युत एकीभूत धर्म का है।
पहले हम इस संदेश पर ही विचार करें। इस शताब्दी के प्रारंभ में ऐसा भय था कि धर्म कहीं विनष्ट न हो जाए। वैज्ञानिक अनुसंधानों के हथौड़ों के प्रबल प्रहारों से पुराने चीनी मिट्टी के ढेरों की तरह चकनाचूर हो रहे थे। जिनके लिए धर्म केवल कुछ मतवादों और निरर्थक अनुष्ठानों का पुंज मात्र था, उनकी हालत नाज़ुक थी, उनकी समझ में कुछ आही नहीं रहा था। सब कुछ जैसे उनके हाथों से खिसकता जा रहा था। कुछ समय के लिए तो ऐसा लगा कि अज्ञेयवाद और भौतिकवाद के उमड़ते ज्वार में सब कुछ विलीन हो जाएगा। कुछ लोग ऐसे थे, जिन्हें अपने विचारों को कहने का साहस नहीं होता था। साथ ही कुछ लोग ऐसा सोचने लगे थे कि धर्म में कुछ रह नही गया, यह सदा के लिए सो गया। किंतु समय ने पलटा खाया और इसके उद्धार के लिए आया-क्या? तुलनात्मक ध्यार्माध्ययन। विभिन्न धर्मों का अध्ययन करने से हम देखते हैं कि मूलत: वे एक ही हैं। जब मैं लड़का था, तो उस संशयवाद से मेरा परिचय हुआ और कुछ समय के लिए ऐसा लगा, जैसे धर्म संबंधी सारी आशाओं को मैं छोड़ ही दूँ। किंतु सौभाग्य से मैंने ईसाई, इस्लाम, बौद्ध तथा अन्य धर्मों का अध्ययन किया और यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि जो मौलिक सिद्धांत हमारे धर्म में सिखाये जाते हैं; वे ही अन्य धर्मों में भी। इसका ज्ञान हमें यों हुआ: मैंने पूछा- सत्य क्या है? क्य यह जगत सत्य है? हाँ। क्योंकि मैं इसे देखता हूँ। क्या यह मधुर ध्वनि (कण्ठ या वाद्य संगीत), जिसे हमने अभी सुना, सत्य है? हाँ। क्योंकि हमने उसे सुना। हम जानते हैं कि मनुष्य के एक शरीर है, आँखें हैं, कान हैं तथा उसका एक आध्यात्मिक पक्ष है, जिसे हम देख नहीं सकते। अपने आध्यात्मिक सामर्थ्य से वह विभिन्न धर्मों का अध्ययन करके जान सकता है कि सभी धर्म तत्वत: एक हैं, चाहे वे भारतवर्ष के जंगलों में सिखाये जाते हों, चाहे ईसाई-भूमि में। इससे तो यही पता चलता है कि धर्म मानव-मन की एक अपरिहार्य आवश्यकता है। इस तरह किसी एक धर्म का सत्य होना अन्य सभी धर्मों के सत्य होने के ऊपर निर्भर करता है। उदाहरण-स्वरूप, अगर मेरे छ: अंगुलियाँ हैं और किसी दूसरे व्यक्ति के नहीं हैं, तो तुम कह सकते हो कि मेरे छ: अंगुलियों का होना असामान्य है। यही बात इस तर्क के संबंध में भी कही जा सकती है कि कोई एक धर्म सत्य है और अन्य सभी झूठे हैं। किसी एक ही धर्म का सत्य होना वैसा ही अस्वाभाविक है, जैसा संसार में किसी एक ही व्यक्ति के छ: अँगुलियों का होना। इस तरह हम देखते हैं कि अगर कोई एक धर्म सत्य है, तो अन्य धर्म भी सत्य हैं। उनके असार भूत तत्वों में अंतर पड़ सकता है, पर तत्वत: सभी एक हैं। अगर मेरी पाँच अँगुलियां सत्य है, तो वे सिद्ध करती हैं कि तुम्हारी पाँच अँगुलियाँ भी सत्य हैं। मनुष्य जहाँ भी हो, कोई न कोई आस्था विकसित कर ही लेता है, अपनी धार्मिक प्रकृति का विकास कर ही लेता है।
विभिन्न धर्मों के अध्ययन से जो दूसरी बात मुझे मालूम हुई, वह यह है कि आत्मा और ईश्वर संबंधी विचारों की तीन भिन्न अवस्थाएँ हैं। पहले तो सभी धर्म यह स्वीकार करते हैं कि इस नश्वर शरीर से परे हमारा कोई ऐसा भी अंश है, अथवा कुछ ऐसा भी है, जो शरीर की तरह परिवर्तित नहीं होता। वह अंश अपरिवर्तनशील है, शाश्वत है, अमर है। पर बाद के कुछ धर्मों का कहना है कि हमारे उस अपरिवर्तनशील अंश का अंत तो नहीं हैं, पर आदि अवश्य है। किंतु जिस किसी भी वस्तु का आदि है, उसका अंत भी होगा ही। हमारा- हमारे सार भूत तत्व का- कोई आदि नहीं और न हमारा कभी अंत होगा। और हम सब से परे, इस शाश्वत प्रकृति से परे,एक दूसरी शाश्वत सत्ता है, जिसका कभी विनाश नहीं होता- वह है ईश्वर। लोग विश्व की रचना तथा मानव-सृष्टि के प्रारंभ की चर्चा करते हैं। यहाँ 'प्रारंभ' शब्द का तात्पर्य किसी कल्प के प्रारंभ से है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि इस पैंगंबरों (cosmos) का कभी प्रारंभ हुआ है। यह हो नहीं सकता कि सृष्टि का कभी प्रारंभ हुआ हो। तुममें से कोई भी प्रारंभ-काल की कल्पना नहीं कर सकता! जिसका प्रारंभ होता है, उसका अंत भी निश्चित है। 'कोई भी समय ऐसा नहीं था, जब मैं नहीं था, अथवा तुम नहीं थे- और न कोई ऐसा समय होगा, जब हममें से कोई न रहेगा।' - ऐसा भगवद्गीता कहती है। जहाँ कहीं भी सृष्टि के प्रारंभ का जिक्र किया गया है- वहाँ उसका तात्पर्य किसी कल्प के प्रारंभ से है। तुम्हारा शरीर मृत्यु का शिकार हो सकता है, पर तुम्हारी आत्मा नहीं।
आत्मा संबंधी इन विचारों के साथ साथ आत्मा की पूर्णता से संबंद्ध एक दूसरे विचार-समूह को भी हम पाते हैं। आत्मा अपने आपमें पूर्ण है। यहूदी लोगों का 'नव व्यवस्थान' प्रारंभ से ही मनुष्य को पूर्ण मानता है। मनुष्य ने अपने कर्मों द्वारा अपने को अपवित्र बना डाला। किंतु उसे अपने मौलिक स्वरूप को पुन: पाना है, जो पवित्र है। कुछ लोग इसी बात को रूपकों, कथाओं और प्रतीकों के माध्यम से कहते हैं। किंतु जब हम इन कथनों की व्याख्या करने लगते हैं, तो पाते हैं कि इन सब की शिक्षा यही है कि आत्मा स्वरूप से ही पूर्ण है और मनुष्य को अपनी मौलिक पवित्रता को पाना है। कैसे? ईश्वर को जानकर। ठीक वैसे ही, जैसे यहूदी लोगों की बाइबिल कहती है- 'पुत्र' (ईसा) को अपनाये बिना कोई ईश्वर को देख नहीं सकता।' इसका क्या तात्पर्य ? ईश्वर को पाना ही जीवन का चरम उद्देश्य है। इसके पहले कि हम परम पिता से एकाकार हो सकें, 'पुत्रत्व' का आना आवश्यक है। याद रखो कि मनुष्य ने अपने पवित्रता अपने ही कर्मों से खो दी है। अगर हम कष्ट झेलते हैं, तो वह हमारे कर्मों का ही परिणाम हैं; ईश्वर इसके लिए दोषी नहीं।
इन विचारों में अत्यंत सन्निकट एक दूसरा भी सिद्धांत है, जो यूरोपीय लोगों द्वारा विकृत होने के पूर्व विश्वजनीन था,- वह है पुनर्जन्म का सिद्धांत। तुम में से कुछ लोगों ने इसके बारे में सुना अवश्य होगा, पर ध्यान नहीं दिया होगा। यह पुनर्जन्म का सिद्धांत मानवात्मा के अमरत्व संबंधी दूसरे सिद्धांत के साथ ही साथ ही चलता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जिसका किसी एक बिंदु पर अंत तो होता हो, पर वह अनादि हो उसका अंत न हो। हम इस विकट असंभाव्यता में कदापि विश्वास नहीं कर सकते कि 'मानवात्मा' का कोई आदि है। पुनर्जन्म का सिद्धांत आत्मा की स्वतंत्रता को प्रतिपादित करता है। अगर तुम किसी निराधार आरंभ की कल्पना करते हो, तो स्वभावत: ही मनुष्य की सारी अपवित्रताओं का भार ईश्वर पर चला जाता है। किंतु क्या परम दयामय परम पिता कहीं संसार के पापों के लिए उत्तरदायी हो सकता है? अगर पाप इसी प्रकार उत्पन्न हुआ है, तो एक मनुष्य दूसरे से अधिक दु:ख क्यों झेलता है? अगर सर्व क्षमाशील प्रभु से ही पापों का प्रादुर्भाव हुआ, तो ऐसा पक्षात क्यों? करोड़ों लोग क्यों पैरों तले रौंद दिये जाते हैं? क्यों अनगिनत लोग भुखमरी के शिकार हो जाते हैं, यद्यपि वे इसके लिए रंच मात्र भी उत्तरदायी नहीं? कौन जवाबदेह है तब ? अगर मनुष्य का इसमें तनिक भी हाथ नहीं, तो निस्संदेह ईश्वर सबका भागी है। पर इससे अच्छी व्याख्या तो यह होगी कि व्यक्ति स्वयं अपने कष्टों के लिए उत्तरदायी है। अगर मैं चक्र को एक बार चला दूँ, तो मैं उन्हें रोक भी सकता हूँ। इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि मैं स्वतंत्र हूँ। दैव या भाग्य नाम की कोई चीज़ नहीं। कोई भी ऐसी चीज़ नहीं, जो हमें बाध्य करे। जो हमने किया है, उसका हम निराकरण भी कर सकते हैं।
इस सिद्धांत के संबंध में दिए गये एक तर्क की ओर हम तुम्हारा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करेंगे। कारण, यह थोड़ा जटिल है। हम अपना समस्त ज्ञान अनुभव के द्वारा प्राप्त करते हैं और जिन्हें हम अनुभव कहते हैं, वे चेतना के स्तर पर ही होते हैं। उदाहरणत: कोई मनुष्य पियानो पर कोई धुन बजाता है। वह प्रत्येक सुर पर अपनी अँगुली जान-बूझकर रखता है। इस क्रम की आवृत्ति वह तब तक करता है, जब तक उसकी अँगुलियाँ अभ्यस्त नहीं हो जातीं। अभ्यस्त होने पर प्रत्येक सुर पर बिना विशेष ध्यान दिए ही वह उस धुन को बजाता है। ठीक उसी तरह हम अपने बारे में भी देखते हैं कि हमारी प्रवृत्तियाँ हमारे अतीत के संचित कर्मों के ही परिणामस्वरूप हैं। कोई भी बच्चा कुछ ख़ास प्रवृत्तियों के साथ पैदा होता है। वे कहाँ से आती हैं? कोई भी बच्चा अनुत्कीर्णफलक (tabula rasa) - सादे पन्ने की तरह कोरामन लेकर पैदान हीं होता। उसके मन रूपी पन्ने पर पहले से ही कुछ लिखा रहता है। यूनान और मिस्र के प्राचीन दार्शनिकों ने बताया है कि कोई भी बच्चा शून्य मन लेकर नहीं आता। प्रत्येक बच्चा अपने पूर्व कृत कर्मों से उत्पन्न सैकड़ों प्रवृत्तियों के साथ उत्पनन होता है। इस जन्म में तो उसने उन्हें पाया नहीं। तब हम यह मानने के लिए बाध्य हो जाते हैं कि अवश्य ही वे उसके पिछले जन्म की हैं। परले सिरे के भौतिकवादी को भी यह मानना पड़ता है कि वे प्रवृत्तियाँ पिछले कर्मों के परिणामस्वरूप हैं। हाँ, इतना वे अवश्य जोड़ देते हैं कि वे वंशानुगत हैं। आनुवंशिकता के इस नियम के अनुसार हमारे पिता, पितामह, प्रपितामहों की परंपरा हम तक आती है। अब अगर इन्हें वंशानुगत कहने से ही व्याख्या पूरी हो जाती है, तो आत्मा में विश्वास करने की कोई आवश्यकता नहीं; क्योंकि शरीर ही सबकी व्याख्या कर देता है। ख़ैर हमें भौतिकवाद और आत्मवाद के तर्कों में उलझना नहीं है। जो व्यक्ति आत्मा में विश्वास करते हैं, उनके लिए यहाँ तक रास्ता साफ़ हैं। इस तरह हम देखते हैं कि किसी समुचित निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए यह मानना ज़रुरी हो जाता है कि हमारे पिछले जीवन भी रहे हैं। अतीत और वर्तमान के महान दार्शनिक एवं महर्षियों का यही विश्वास है। यहूदियों में एक ऐसा ही सिद्धांत प्रचलित था। ईसा मसीह इसको मानते थे। उन्होंने बाइबिल में कहा हैं-''अब्राहम के पहले से ही मैं हूँ।'' और अन्यंत्र कहा गया है- ''ये एलिया ही आये हैं।''
विभिन्न जातियों में विभिन्न परिस्थितियों के बीच विकसित हुए विश्व के सभी धर्म मूलत: एशिया से ही निकले हैं; और एशियावासी उन्हें अच्छी तरह समझते हैं। जब वे अपनी जन्मभूमि से बाहर आये, तो अनेकानेक दोष उनमें घुल-मिल गये। ईसाई धर्म के सबसे गंभीर तथा उदात्त विचार यूपरोप में कभी समझे नहीं गये, क्योंकि बाइबिल में उल्लिखित चिंतन तथा कल्पनाएँ उनके लिए विजातीय थीं। दृष्टांत के लिए 'मैडोना'के चित्रों को लो। हर कलाकार अपने मैडोना चित्र को अपनी पूर्व निश्चित धारणाओं के अनुकूल गढ़ता है। मैंने इसा मसीह के अंतिम नैशभोज के सैकड़ों चित्र देखे। सबमें उन्हें मेज़ पर भोजन करते दिखाया गया है। ईसा ने कभी मेज़ पर बैठना नहीं जाना। वे तो दूसरों के साथ जमीन पर पल्थी मारकर बैठते और एक ही कटोरे में सब अपनी अपनी रोटियाँ डुबोते। उनकी रोटी वैसी नहीं थी, जैसी आजकल तुम लोग खाते हो। किसी भी राष्ट्र के लिए अपरिचित परंपराओं को समझना मुश्किल होता है। शताब्दियों के परिवर्तन एवं ग्रीक, रोमन तथा अन्य जातियों से संवर्द्धन के पश्चात् यूरोपवासियों के लिए तो यहूदियों की परंपराओं को समझना और भी कठिन था। पौराणिक कथाओं एवं देवोपाख्यानों से परिवेष्टित ईसा मसीह के सुंदर धर्म को अगर लोग बहुत ही थोड़ा समझ पाते हैं, तो इसमें आश्चर्य नहीं! फिर यदि लोगों ने उसे बाज़ारु रूप दे दिया, तो इसमें भी आश्चर्य नहीं।
अब हम अपने विषय पर आ जाएं। हम देखते हें कि सभी धर्म कहते हैं कि आत्मा शाश्वत है और उसकी ज्योति धुँधली पड़ गयी है। किंतु ईश्वरानुभूति के द्वारा उसकी मौलिक पवित्रता को पुन: प्राप्त करना है। आखि़र इन विभिन्न धर्मों में ईश्वर के संबंध में धारणा क्या है? प्रारंभिक अवस्था में ईश्वर के संबंध में बहुत ही अस्पष्ट धारणा थी। सबसे प्राचीन राष्ट्र अनेक देवताओं को मानते थे- जैसे सूर्य, पृथ्वी, अग्नि, जल। प्राचीन यहूदियों में हम ऐसे अनेक देवताओं का जिक्र पाते हैं, जो प्राय:आपस में भयानक रूप से लड़ा करते थे। इसके बाद हमें एलोहिम (Elohim) का वर्णन मिलता है, जिसे यहूदी तथा बेबिलोनिया निवासी पूजते थे। तदुपरांत सभी देवताओं के ऊपर एक देवाधिदेव की कल्पना की गयी। किंतु यह धारणा भी भिन्न-भिन्न जातियों में भिन्न-भिन्न रूप में थी। प्रत्येक जाति अपने ईश्वर को सबसे बड़ा मानती थी और यह सिद्ध करने के लिए वे आपस में लड़ा करती थीं। जो जाति लड़ने में सबसे अधिक कुशल होती, उसी का देवता श्रेष्ठ माना जाता। ये जातियाँ न्यूनाधिक रूप में बर्बर थी। किंतु समायानुसार अच्छे से अच्छे विचार पुरानी रुढि़यों के स्थान लेते गये। फलस्वरूप अब सारी पुरानी धारणाएँ या तो ख़त्म हो चुकी हैं, या ख़त्म हो रही हैं। किंतु इस बात को नहीं भुलाया जा सकता कि इन सारे धर्मों का प्रादुर्भाव शताब्दियों के क्रमिक विकास से हुआ है। इनमें से कोई भी आसमान से नहीं टपका। प्रत्येक को तिल तिल करके गढ़ा गया है। विकास की इस अवस्था के बाद एकेश्वरवाद की अवस्था आती है। एकेश्वरवाद एक ईश्वर में विश्वास करता है, जो सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है तथा विश्व का एकमात्र प्रभु है। ऐसा माना जाता है कि ईश्वर विश्वातीत है; वह स्वर्ग में रहता है। इस ईश्वर के चिंतकों ने अपनी स्थूल धारणाओं के अनुकूल उसका स्वरूप-निरूपण किया; जैसे ईश्वर के दायें और बायें पक्ष का होना उसके हाथ में एक चिडि़या का रहना, आदि-आदि। एक बात मार्के की यह है कि जंगली जातियों के सभी देवता सदा के लिए विलुप्त हो गये और देवाधिदेव एक ईश्वर ने उनकी जगह ले ली। यह एक ईश्वर विश्व से परे हैं और उसे पाया नहीं जा सकता- उसके पास कोई पहुँच नहीं सकता पर धीरे-धीरे यह विचार भी बदलता गया और विकास की अपनी अवस्था आयी, जिसमें ईश्वर को प्रकृति में व्याप्त माना गया।
नव व्यवस्थान में कहा गया है- 'हमारे पिता जो स्वर्ग में हैं।' - यह ऐसे ईश्वर की कल्पना है, जो लोगों से दूर स्वर्ग में रहता है। हम धरती पर रहते हैं और वह स्वर्ग में। आगे चलकर यह उपदेश मिलता है कि ईश्वर प्रकृति में व्याप्त है। यह केवल स्वर्ग में ही नहीं, प्रत्युत पृथ्वी पर भी है। वह हमारे भीतर भी है। हिंदू दर्शन में ईश्वर और व्यक्ति के सान्निध्य की यह अवस्था देखने को मिलती है; किंतु हम लोग यहीं नहीं रुकते। इसके आगे हम अद्वैतावस्था की भी कल्पना करते हैं, जिसमें आराधक यह अनुभव करता है कि उसका ईश्वर केवल स्वर्ग और पृथ्वी का परम पिता ही नहीं है, अपितु- वह यह भी अनुभव करता है कि 'मैं और मेरे परम पिता एक ही है।' वह अपनी अंतरात्मा में अनुभव करता है कि वह स्वयं ईश्वर है, अंतर इतना ही है कि वह ईश्वर की निम्नतर अभिव्यक्ति है। मेरे भीतर जो भी सत्य है, वह ईश्वर है और ईश्वर के भीतर जो सत्य है, वह मैं हूँ। इस तरह ईश्वर और व्यक्ति के बीच की खाई पट जाती है। इस तरह हम देखते हैं कि ईश्वर-ज्ञान के द्वारा हम स्वर्ग के साम्राज्य को अपने अंदर ही पा लेते हैं।
पहली अवस्था में, अर्थात द्वैतावस्था में, मनुष्य समझता है कि वह लघु जीवात्मा मात्र हैं - जैसे वह जॉन है, जेम्स है, अथवा टॉम है। वह कहता है- ''मैं सदा जॉन, जेम्स या टॉम ही बना रहूँगा, कभी बदलॅूंगा नहीं।'' यह कहना कुछ वैसा ही है, जैसे कि कोई हत्यारा आकर कहने लगे- ''मैं सदा हत्यारा ही बना रहूँगा।'' किंतु जैसे जैसे समय बीतता जाता है, टॉम का स्वरूप बदलता है और अंत में तो वह शुद्ध 'आदम' रूप में लौट जाता है।
'वे धन्य हैं, जिनका हृदय पवित्र है; क्योंकि वे ईश्वर का दर्शन करेंगे।' क्या हम ईश्वर को देख सकते हैं? निस्संदेह नहीं। अगर ईश्वर को जाना जा सकता है, तो वह ईश्वर नहीं रह जाएगा क्योंकि किसी भी वस्तु का ज्ञान होना उसके सीमित होने को सिद्ध करता है। किंतु ऐसा कहा जा सकता है कि 'मैं और मेरे पिता एक हैं।' मैं अपनी आत्मा में ही परम तत्व को पाता हूँ।' ये विचार कुछ धर्मों में स्पष्टत: कहे गए हैं, जब कि दूसरे धर्मों में इनकी ओर संकेत मात्र है। पर कुछ ऐसे भी धर्म हैं, जिनमें से इस विचार को निर्वासित ही कर दिया गया है। सच पूछो तो, इस देश में अब ईसा मसीह के धर्म को बहुत कम ही समझा जाता है। और अगर तुम क्षमा करो, तो मैं भी कहूँगा कि कभी भी इस धर्म को यहाँ अच्छी तरह समझा नहीं गया।
वस्तुत: विकास की जो भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ हैं, वे पवित्रता एवं पूर्णता की प्राप्ति के लिए परमावश्यक हैं। मूलत: तो सभी धर्म एक ही धारणा पर आधारित हैं। ईसा मसीह एक जगह कहते हैं- ''स्वर्ग का राज्य तो तुम्हारे अंदर है।'' वे दूसरी जगह कहते हैं - ''हमारे परम पिता, जो स्वर्ग में रहते हैं।'' इन दोनों कथनों में तुम किस तरह सामंजस्य कर पाते हो? वह ऐसे हो सकता है- जब उन्होंने दूसरे कथन को कहा, तो वे उन लोगों से बातें कर रहे थे, जो धर्म के मामले में बिल्कुल अज्ञानी थे। यह ज़रुरी था कि वे उनसे उन्हीं की भाषा में बोलते। आम लोग तो ठोस विचार चाहते हैं, कुछ इस तरह का ठोस विचार, जिसे वे अपनी इंद्रियों से सहज ही पकड़ सकें। कोई आदमी बड़ा से बड़ा दार्शनिक होकर भी धर्म के क्षेत्र में निरा बच्चा हो सकता है। जब मनुष्य आध्यात्मिकता की काफ़ी ऊँचाई प्राप्त कर लेता है, तभी वह समझ सकता है कि वस्तुत: स्वर्ग का राज्य उसके अंदर है, वही मन का सच्चा साम्राज्य है। इस तरह हम देखते हैं कि प्रत्येक धर्म की आपात-दृष्टि की असंगतियाँ व उलझनें उसके विकास की ही अवस्थाओं का बोझ कराती है। और इसलिए हमें किसी को उसके धर्म के लिए दोष देने का अधिकार नहीं है। विकास की कुछ ऐसी अवस्थाएँ होती हैं, जिनमें आकार एवं प्रतीकों का प्रयोग आवश्यक होता है, क्योंकि उन अवस्थाओं में आत्मा इसी तरह की भाषा समझ सकती है।
दूसरा विचार, जिसे मैं तुम लोगों के समक्ष रखना चाहता हूँ, वह यह है कि धर्म केवल सिद्धांत और मत की बात नहीं है। तुम क्या पढ़ते हो अथवा किस मत में विश्वास करते हो, यह उतना महत्व नहीं रखता। असल चीज़ तो यह है कि तुम क्या अनुभव करते हो। कहा गया है- ''वे धन्य हैं, जो हृदय से पवित्र हैं, क्योंकि वे ही ईश्वर का दर्शन करेंगे।'' जी हाँ, और इसी जीवन में। यही मोक्ष है। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं कि कुछ शब्दों के बदबुदाने मात्र से मुक्ति मिल जाएगी पर किसी भी महान गुरु ने यह नहीं बताया कि बाह्माचार मोक्ष पाने के लिए आवश्यक है। इसे पाने की क्षमता तो हमारे भीतर है। वस्तुत: हम सदा ईश्वर में ही रमण और भ्रमण करते हैं। मतों और संप्रदायों का अपना महत्व है- पर वे बच्चों के लिए हैं- वे अल्प काल के लिए हैं। हमें इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि ग्रंथ कभी भी धर्म को नहीं गढ़ते, धर्म ही ग्रंथों को गढ़ते हैं। कभी किसी ग्रंथ ने ईश्वर की सृष्टि नहीं की - परंतु हर महान ग्रंथ की सृष्टि की मूलभूत प्रेरणा अवश्य ही ईश्वर है। इसी तरह हमें यह भी न भूलना चाहिए कि किसी पुस्तक ने आत्मा की सृष्टि नहीं की। हर धर्म का परम उद्देश्य यही है कि आत्मा में ही परमात्मा का दर्शन किया जाए। यही एकमात्र सार्वभौतिक धर्म है। अगर सभी धर्मों में कोई एक सर्वव्यापी सत्य है, तो मैं कहूँगा कि वह है ईश्वर को पाना। आदर्श और साधन भिन्न-भिन्नहो सकते हैं, पर मौलिक तथ्य यही है। त्रिज्याएँ हज़ारों हो सकती हैं, पर वे सभी आकर एक केंद्र-बिंदु पर मिलती हैं। और वह केंद्र है- ईश्वर-प्राप्ति, जो हमारी इंद्रियों की दुनिया से परे है- खाने-पीने और निरर्थक बकवास की दुनिया से तथा झूठी विडंबनाओं एवं स्वार्थ की दुनिया से परे हैं। वह -अपने आप में ईश्वर का दर्शन- एक ऐसी चीज़ हैं, जो पुस्तकों से परे हैं, मत-मंतांतरों से परे है तथा संसार की विडंबनाओं से परे हैं। कोई आदमी संसार के सारे संप्रदायों में विश्वास करता है हो, समस्त धर्मग्रंथों का ज्ञान वहन करता हो अथवा संसार की स्भी पवित्र नदियों में स्नान कर पुण्य कमा चुका हो, पर यदि उसे ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हुआ है, तो मैं उसे परले सिरे का नास्तिक मानूँगा। और यदि कोई कभी किसी गिरजाघर या मस्जिद में न गया हो, न उसने कभी कोई पूजादि कर्म किया हो, फिर भी अपने भीतर ईश्वर को अनुभव करता हो और इस तरह संसार के आडम्बरों से ऊपर उठ चुका हो, तो वह वस्तुत: सच्चा साधु है, चाहे तुम उसे जो भी कहो। जब कोई आदमी खड़ा होकर कहने लगता है कि केवल वही ठीक रास्ते पर है अथवा केवल उसी का संप्रदाय सच्चा है और अन्य सभी ग़लत हैं, तब वह अपने को ही सर्वथा ग़लत ठहराता है। उसे पता नहीं कि दूसरों के अस्तित्व को सिद्ध करने पर ही उसके अपने अस्तित्व की सिद्धि निर्भर करती हैं। मानव मात्र के लिए स्नेह और दया ही सच्ची धार्मिकता की परख है। मेरा मतलब उस भावुकता पूर्ण कथन से नहीं है- 'सभी मनुष्य भाई भाई हैं' - परंतु मनुष्य जीवन की एकत्वानुभूति की आवश्यकता से है। मैं समझता हूँ कि जब तक वे दूसरों का अस्वीकार नहीं करते, सभी मत एवं संप्रदाय मेरे अपने हैं, और सभी भव्य हैं। वे सभी मनुष्य को सच्चे धर्म की ओर उन्मुख करने में सहायक होते हैं। मैं तो और भी कहूँगा कि किसी संप्रदाय में पैदा होना अच्छा हैं, पर उसकी सीमाओं के भीतर ही मर जाना बुरा है। बच्चा पैदा होना अच्छा है, पर उसकी सीमाओं के भीतर ही मर जाना बुरा है। संप्रदाय, नियम और प्रतीक तो बच्चों के लिए ठीक हैं, पर जब बच्चा सयाना हो जाए, तो उसे चाहिए कि या तो वह संप्रदाय ही को अतिशय विस्तृत बना दे या स्वयं उससे बाहर चला आये। हमें सदा शिशु ही नहीं रहना है। यह बात तो कुछ इस ढंग की लगती हैं, जैसे बचपन के कोट को ही हर अवस्था में पहनने की कोशिश की जाए। ऐसा कहकर मैं किसी धर्म की निंदा नहीं करता। मैं तो चाहता हूँ कि ईश्वर करे, दो करोड़ संप्रदाय और बढ़ जाएं। क्योंकि जितने ही अधिक धर्म रहेंगे, चुनने के लिए उतना ही अधिक अवसर रहेगा। जिस बात पर मुझे आपत्ति हैं, वह है एक ही धर्म को सबके लिए ठीक समझा जाना। यद्यपि मूलत:सभी धर्म एक ही हैं, तो भी विभिन्न देशों की विभिन्न परिस्थितियों के कारण उनके बाह्य रूप में भिन्नता आही जाती हैं। और जहाँ तक बाह्य स्वरूप का संबंध हैं, हममें से प्रत्येक को अपना अपना व्यक्तिगत धर्म चुनना आवश्यक है।
बहुत वर्ष पूर्व मैंने अपने ही देश के एक बहुत बड़े महात्मा के दर्शन किये। हम लोगों ने अपने श्रुति-ग्रंथ वेदों तथा कुरान, बाइबिल आदि अन्य कई धर्मग्रंथों की चर्चा की। जब बातें खत्म हुई, तो महात्मा ने मुझे मेज़ पर से एक किताब उठा लाने को कहा। उस किताब में अन्यान्य बातों के साथ यह भी लिखा था कि उस साल कितनी वर्षा होने वाली थी।उस महात्मा ने कहा-इसे पढ़ो और मैंने पढ़ा कि कितनी वर्षा होने को है। उन्होंने कहा-किताब लो और इसे निचोड़े। मैंने वैसे ही किया। तब उन्होंने कहा-जब तक पानी नहीं गिरता, यह किताब कोरी किताब ही हैं, मात्र किताब। उसी तरह जब तक तुम्हारा धर्म ईश्वर-प्राप्ति नहीं कर देता, तब तक वह निरर्थक है। जो व्यक्ति धर्म के लिए केवल किताबें पढ़ता है, उसकी हालत तो गल्प वाले उस गदहे की हैं, जो पीठ पर चीनी का भारी बोझ ढोता हुआ भी उसकी मिठास को नहीं जान पाता।
क्या लोगों से हमारा यह कहना उचित होगा कि घुटने टेककर चिल्लाओ कि हम इतने बड़े पापी हैं? नहीं, नहीं, बल्कि हम उन्हें उनकी दैवी प्रकृति की याद दिला दें। मैं तुमसे एक कहानी कहूँगा। एक सिंहनी शिकार की टोह में भेड़ों के किसी गिरोह के पास आयी। पर ज्यों ही वह अपने शिकार पर झपटी कि उसे बच्चा हो गया और वह वहीं मर गयी। वह सिंह-शावक भेड़ों के बीच ही पाला-पोसा गया। वह घास खाता और भेड़ों की तरह ही में-में करके बोलता, क्योंकि उसे कभी यह ज्ञान ही नहीं हुआ कि वह सिंह है। एक दिन एक दूसरा सिंह इधर से निकला। एक भीमकाय सिंह को भेड़ों के बीच घास खाते और भेड़ों की तरह ही में-में करते देख उसे बहुत आश्चर्य हुआ। इस नये सिंह को देख सभी भेड़ें भाग खड़ी हुई और उनके साथ वह सिंह-भेड़ भी किंतु सिंह मौके की ताक में रहने लगा और एक दिन उसने सिंह-भेड़ को अकेला सोते पाया। उसने उसे जगाया और कहा, ''तुम सिंह हो।'' दूसरे सिंह ने जवाब दिया- ''नहीं'', और यह कहकर वह भेड़ों की तरह मिमियानें लगा। इस पर वह नया सिंह उसके साथ एक झील के पास गया और कहा- ''तुम पानी में देखो और बताओ कि क्या तुम्हारा चेहरा मुझसे मिलता-जुलता नहीं है?'' उसने वैसा ही किया और देखकर स्वीकार किया कि हाँ, ठीक है। तब उस नये सिंह ने गरजना शुरु किया और उससे कहा कि तुम भी ऐसा करो। सिंह-भेड़ ने अपनी आवाज आज़मायी और फिरतो वह नये सिंह की ही भाँति विकराल रूप से गरजने लगा। और तब से उसका भेड़पन जाता रहा।
मेरे मित्रों, मैं तो तुमसे यही कहूँगा कि तुम सभी बलशाली सिंह हो।
अगर तुम्हारे कमरे में अँधेरा है, तो तुम छाती पीट पीटकर यह तो नहीं चिल्लाते कि हाय, अँधेरा हैं, अँधेरा है, अँधेरा है। अगर तुम उजाला चाहते हो, तो एक ही रास्ता है, तुम दिया जलाओ और अंधेरा अपने ही आप ख़त्म हो जाएगा। तुम्हारे ऊपर जो प्रकाश है, उसे पाने की एक ही साधन है- तुम अपने भीतर का आध्यात्मिक प्रदीप जलाओ, पाप और अपवित्रता का तमिस्र स्वयं भाग आएगा। तुम अपनी आत्मा के उदात्त रूप का चिंतन करो, गर्हित रूप का नहीं।